मन्दिर आस्था का प्रतीक है।

मंदिर : आस्था का प्रतीक

भारतवर्ष एक आस्था प्रधान देश है, जहां धर्म और विश्वास जनमानस के जीवन में गहराई से रचे-बसे हैं। इन आस्थाओं का केंद्रबिंदु हैं – मंदिर, जो केवल ईश्वर की मूर्तियों का स्थान नहीं, बल्कि भावनाओं, संस्कारों और सामाजिक समरसता के प्रतीक भी हैं।

मंदिरों की महत्ता सिर्फ धार्मिक दृष्टिकोण तक सीमित नहीं है। वे इतिहास, संस्कृति और वास्तुकला के अद्वितीय उदाहरण हैं। दक्षिण के भव्य मंदिर हों या उत्तर भारत के प्राचीन शिवालय, हर मंदिर अपनी अलग कथा और परंपरा को संजोए हुए है।

मंदिरों में पूजा-अर्चना के साथ-साथ सामाजिक एकता भी देखने को मिलती है। यहां अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, जात-पात का भेदभाव नहीं होता। सभी एक साथ सिर झुकाते हैं और अपने ईष्ट से जुड़ने की कोशिश करते हैं। यह समानता का भाव ही मंदिरों को समाज के लिए आवश्यक बनाता है।

आज के भागदौड़ भरे जीवन में जब व्यक्ति मानसिक शांति की तलाश में भटकता है, तब मंदिर उसकी आत्मा को ठहराव और मन को सुकून देता है। घंटियों की ध्वनि, दीपों की लौ और मंत्रों की गूंज जैसे आत्मा को निर्मल कर देती है। यही कारण है कि लोग कठिन परिस्थितियों में सबसे पहले मंदिर की शरण लेते हैं।

हालांकि, कुछ स्थानों पर मंदिरों का राजनीतिक या व्यावसायिक उपयोग भी देखने को मिलता है, जो चिंताजनक है। मंदिरों को केवल धार्मिक या सामाजिक सेवा का माध्यम ही बने रहना चाहिए, न कि किसी विशेष स्वार्थ का केंद्र।

अंततः, मंदिर केवल ईंट-पत्थर की इमारत नहीं, बल्कि संवेदनाओं और आस्था का जीवंत प्रतीक हैं। यह हमारा दायित्व है कि हम मंदिरों की पवित्रता बनाए रखें और इन्हें धार्मिक सहिष्णुता, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक विरासत के केंद्र के रूप में संरक्षित करें।

– सम्पादक

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