वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर | परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर।।
साधु का स्वभाव परोपकारी होता है, जैसे वृक्ष कभी अपना फल स्वंय नहीं खाता है और नदी जिस प्रकार से स्वंय के नीर का संचय नहीं करती है वैसे ही साधु और संत भी अपने जीवन का उपयोग परमार्थ के लिए ही करते हैं।
साधु के भेष अलग हो सकते हैं कपड़े अलग हो सकते हैं स्त्री या पुरुष हो सकता है साधु एक व्यवहार है, स्वभाव है।
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