अपने अंदर के अंधेरे
जब हमारे अंदर के अंधेरे बढ़ जाते हैं तो हमें बाहर भी अंधेरा दिखाई देने लगता है खुशी देने वाली चीजें भी दुखी करने लगती हैं किसी की अच्छी बातें भी बुरी लगने लगती है, खासकर सवेरा होने से पहले अंधेरा कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है और हमें ऐसा लगता है जैसे सवेरा होगा कि नहीं। हमें कोशिश करनी पड़ेगी कि हमारे अंदर का उजाला कभी ना खत्म हो चाहे बाहर कितना भी अंधेरा हो और इस रोशनी को इतनी बढ़ानी पड़ेगी की इससे दूसरों की जिंदगी में भी उजाला आए।
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