आओ थोड़ा जी लेते हैं
आओ थोड़ा जी लेते हैं यह वक्त का दस्तूर है हमेशा एक सा नहीं रहता कभी दिन दोपहर, कभी रात, कभी सर्दी की ठिठुरते रातें, कभी गर्मी की तेज दोपहरी, कभी बरसात के बूंदों की टिप टिप बादलों की गड़गड़ाहट और इसी में बीत जाता है सारा वक्त l कभी बचपन कभी जवानी और लो आ गया बुढ़ापा। कहां से ढूंढ के लाओ गे वह बचपन के दिन वह कागज की कश्ती वो बारिश का पानी , वह कॉलेज की कैंटीन की चाय ,वह पहला आकर्षण, नौकरी की भागदौड़, बाल सफेद हो गए, भैया से अंकल हो गएl कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना देखो बेकार की बातों में कहीं बीत न जाए रैना l
Comments